अपने लिए तो सभी जिया करते हैं.पर कुछ लोग
ऐसे हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं. इस कथन को अगर हकीकत में देखना है तो पर्यटन
स्थल खजुराहो के समीप जिला मुख्यालय छतरपुर के संजय शर्मा इस की मिसाल हैं. वे
दूसरों के लिए जीते हैं और उन मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों की सेवा करते
हैं, जिन्हें लोग पागल कह कर दुत्कार देते हैं.
ग्राडसे ब्रेवरी अवार्ड सहित कई पुरस्कारों
से सम्मानित पेशे से वकील संजय शर्मा ऐसे व्यक्तियों की महज देखभाल ही नहीं करते.
वे उन्हें शासकीय खर्चे पर चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराने का काम पिछले 24
वर्षों से कर रहे हैं. मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों के प्रति उन के लगाव को देख कर
आसपास के सभी लोग उन्हें पागलों का वकील भी कहते हैं.
आज
उन के प्रयासों के कारण 260 से ज्यादा ऐसे लोग सही हो कर सामान्य जीवन जी रहे हैं.वे
बिना किसी के सहयोग से सड़क पर घूमते विक्षिप्तों व अशक्तजनों को कपड़े पहनाना,ठंड
में कंबल शाल बांटना, खाना खिलाना शेव कटिंग, नहलानाधुलाना वगैरह अपने खर्चे पर
करते आ रहे हैं. कानून की डिग्री हासिल करने की वजह से चूंकि वे कानून से वाकिफ
हैं. इसलिए ऐसे गरीब विक्षिप्तों को वे मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 के अनुसार
न्यायालय के माध्यम से मानसिक अस्पताल में भेजते हैं. संजय शर्मा का कोई एनजीओ
नहीं है वे बिना किसी की सहायता लिए हुए इस काम को अंजाम दे रहे हैं.
शौक बना जनून
उन के इस शौक की शुरुआत कैसे हुई इस के बारे में
वे बताते हैं कि मैं जब छोटा था तब हमारे महल्ले में एक पागल व्यक्ति रोज आता था,
महल्ले के सभी बच्चे उसे परेशान करते व उस को पत्थर मारते थे. लेकिन मेरी नानी उसे
रोज खाना देती थी. नानी से प्रेरणा लेकर मैं भी रोज मां से बिना बताए घर का बचा
खाना उसे देने लगा. खाना खा कर जो संतुष्टि के भाव उस के चेहरे पर आते थे वे ऐसे
लगते थे जैसे किसी जरूरतमंद को कहीं से बहुत सारा पैसा मिल गया हो. धीरेधीरे मेरे
घर के सामने शहर के ऐसे लोगों की भीड़ जमा होने लगी. लेकिन इस पर महल्ले वालों से
ले कर मेरे घर वालों तक को इसलिए आपत्ती होने लगी.क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं कोई पागल उन के बच्चों और उन्हें नुकसान न
पहुंचा दे. सभी के विरोध के बावजूद भी मैं ने ऐसे व्यक्तियों के प्रति अपने शौक को
बंद नहीं किया. लेकिन उन से मिलने के लिए जगह जरूर बदल ली. मैं ने देखा कि इन में
और भीख मांगने वालोम में बहुत अंतर है. भीख मांगने वाले भीख मांगना एक व्यवसाय बना
लेते हैं पर ये व्यक्ति सिर्फ उतना ही लेते हैं जितनी इन्हें आवश्यकता होती है,
इन्हें इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई इन्हें परेशान कर रहा है. तभी से मैं ने यह
संकल्प लिया कि मैं ऐसे ही अशक्तजनों की सेवा करूंगा. तब से आज तक यह लगातार जारी
है.
अंधविश्वास
की गहरी जड़ें
मध्य
प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 11 जिलों से घिरे बुंदेलखंड में अंधविश्वास और
कुरूतियां चरम सीमा पर हैं. मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों को पहले तो उस के घर वाले
और गांव वाले दैवीय क्रोध मान कर झाड़नेफूंकने वाले तांत्रिक ओझा के पास ले कर
जाते हैं. और उस व्यक्ति को घर पर ही जानवरों की तरह कैद करके रखते हैं. उस व्यक्ति से जुड़े अंधविश्वास में कंठ तक डूबे
घर वाले इन लोगों के चंगुल में फंस कर झाड़फूंक कराते रहते हैं, क्योंकि पंडेपुजारी
तो हमेशा से यही चाहते हैं कि उन की धर्म की दुकान न बंद हो. उचित चिकित्सीय इलाज
न मिलने के कारण उस की हालत बद से बदतर होती जाती है. लोगों में इस बीमारी के तेजी
से फैलने के कारण पर संजय बताते हैं कि मैंने जितने भी विक्षिप्त व्यक्तियों से
संपर्क किया सभी ने बताया कि शुरू में वे गांजा पीने के आदी थे. गांजा तंत्रिका
तंत्र पर हमला करता है और उस का शिकार व्यक्ति धीरेधीरे उस की गिरप्त में आता जाता
है. आगे चल कर नशा व्यक्ति पर इस कदर हावी हो जाता है कि वह विक्षिप्तों जैसा
व्योहार करने लगता है और यही आगे चलकर उचित सलाह और इलाज न मिलने की दशा में पूर्ण
रूप से विक्षिप्त हो जाता हैं.
वे
बताते हैं कि ऐसे लोगों का इलाज कराना भी सरल नहीं है,क्यों कि एक तो हमारे देश
में मनोचिकित्सकों की भारी कमी है, और दवाएं अत्यंत महंगी हैं.और सब से बड़ी
समस्या कानून है जिस को सही तरीके से पूरा किए बिना परिवार वाले भी मानसिक रूप से
विक्षिप्त को अस्पताल में ऐडमिट नहीं कर सकते. भारत सरकार के मैंटल ऐक्ट 1984 के
अनुसार ही ऐसे व्यक्ति का अस्पताल में दाखिला होता है. इस ऐक्ट के लागू होने के
पहले किसी भी सामान्य व्यक्ति को पागल घोषित करके प्रौपर्टी हथियाने के मामले
सामान्य थे. उसी को रोकने के लिए सरकार यह ऐक्ट लाया था. जिस में उस इलाके का थाना
प्रभारी पंचनामा बना कर और आसपास वालों के स्टेटमेंट के आधार पर यह लिखता है कि
उक्त विक्षिप्त व्यक्ति हिंसक है और समाज के लिए खतरनाक है.उस स्टेटमैंट को उस
जिले के मैडीकल बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया जाता है. बोर्ड की स्वीकृति के बाद
सीजीएम द्वारा विक्षिप्त व्यक्ति को मानसिक अस्पताल में दाखिले के लिए आदेश जारी किया
जाता है. अब आप ही बताइए कौन इस लंबी कानूनी प्रक्रिया को अपनाता होगा. कई मरीजों
के घर वाले तो इस लंबी कानूनी प्रक्रिया से डर उन का इलाज नहीं कराते हैं और घर पर
ही कैद कर देते हैं. मुझे जब किसी मरीज के बारे में पता चलता है तो में यही कानूनी
प्रक्रिया उन के लिए स्वयं करता हूं. चूंकि में खुद कानून का जानकार हूं तो बड़े
ही सहज तरीके से न्यायपालिका के सहयोग से उस मरीज की सहायता कर पाता हूं. कई बार
तो ऐसे मरीज जिनका कोई पता ठिकाना नहीं कोई घरपरिवार नहीं उन का इलाज मैं ने शासकीय
खर्चे पर कराया है. क्योंकि कानून में प्रावधान है कि अगर कोई निराश्रित है या
गरीब है तो उस का इलाज सरकार कराएगी.
कठिनाइयां
सेवा
कार्य करते समय उन्हें कई बार परेशानियों का सामना भी करना पड़ा है.कुछ विक्षिप्त
तो पहली बार उन से मिलने पर वैसा ही व्यवहार करते हैं.जैसा वे आम लोगों के साथ
करते हैं. मारने के लिए दौड़ना, गालियां देना, दिए गए सामान को फेंक देना. इस के
बावजूद भी मैं बिलकुल सहज भाव से इन से मिलता हूं. जैसे किसी सामान्य अदमी से
मिलता हूं. उन की पसंद की चीजों के बारे में पता करता हूं. उस का लालच देता हूं.तब
वे पास आने को तैयार होते हैं कई मरीज जिन्हें कईकई दिनों से जंजीरों में बांध कर
रखा गया होता है वे हिंसक हो जाते हैं और पास में आनेजाने वालों को मारते हैं. उन
के पास जाने में मुझे भी कुछ डर लगा रहता है पर धीरेधीरे बात करने पर उन से
दोस्ताना व्यवहार हो जाता है. उन को नहलाना, खाना खिलाना,गंदगी साफ करने तक का काम
मैं करता हूं. तब जाकर उन का विश्वास हासिल कर पाता हूं. एक बार तो संजय शर्मा को
ऐसे लोगों की सहायता के चक्कर में जेल तक हो गई थी. वे बताते हैं, एक ग्रैजुऐट
लड़का जो 4 साल से मानसिक विक्षिप्त था, ने 4-5 लोगों पर धारदार हथियारों से हमला
कर दिया. उस के विरुद्ध 4 कानूनी मामले भी दर्ज हो गए पर विक्षिप्तता की अवस्था
उसे जेल नहीं हो पाई. और वह मोटी जंजीरों से घर पर ही दिनरात बंधा रहता था. मैं ने
उस के परिवार वालों की गुहार पर पुलिस अधीक्षक से मिलकर कानूनी कार्यवाही करके
जिला अस्पताल में उस का मैडीकल कराकर संबंधित न्यायालय उसे पेश किया. जहां
न्यायालय ने उस से कुछ प्रश्न किए इस के बाद न्यायालय के दरवाजे बंद करके
न्यायायधीश ने कुछ प्रश्न किए. विक्षिप्त ग्रैजुऐट व टीचर था. इसलिए सभी प्रश्नों
के सही उत्तर देता रहा. न्यायालय ने मैडीकल रिपोर्ट,पंचनामा को आधार न मानकर उस
व्यक्ति को मानसिक रूप से सही मानते हुए मुझे और उस व्यक्ति के पिता को धारा 342
के तहत गिरफ्तार करने का आदेश दिया. 10 दिन की कैद के पश्चात न्यायालय ने दोबारा
सारी विवेचना कराई जो सही पाई गई और उसे मानसिक विक्षिप्त पाया गया और कोर्ट के
अदेश पर उस का इलाज कराया गया.
इसलिए बढ रही है संख्या
बस स्टैंड के पास और सड़क किनारे होटलों
ढाबों में रातदिन काम करते कई मानसिक विक्षिप्तों को आप ने देखा होगा. कई लोग ऐसे
लोगों का गलत फायदा भी उठाते हैं. क्यों कि सिर्फ खाना खिलाने के नाम पर रातदिन इन
से काम लिया जाता है. ऐसे लोगों की संख्या हमारे देश में हजारों है जिनकी सुध लेने
वाला हमारे यहां कोई नहीं है. अगर कोई मदद के लिए हाथ बढ़ाता भी है तो हमारी
कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामान्य आदमी इन्हें अस्पताल में ऐडमिट नहीं करा
सकता. पुलिस भी पूर्ण रूप से सहयोग नहीं करती क्योंकि उसे भी ऐक्ट की जानकारी नहीं
है और इन लोगों को वह बेबजह के झमेले में पड़ना मानती है. अगर किसी विक्षिप्त का
परिवार उसका इलाज कराने में सक्षम है तो डौक्टरों की भारी कमी है.
विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने पूर्वानुमान लगाया है कि भारत में वर्ष 2020 तक
भारत की लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या (लगभग 30 करोड़ लोग) किसी न
किसी प्रकार की
मानसिक अस्वस्थता से पीड़ित होगी. वर्तमान में भारत में मात्र 3500 मनोचिकित्सक हैं, अतः सरकार को अगले दशक में इस अंतराल को काफी हद तक कम करने की समस्या से जूझना होगा.
मैंने
जबलपुर हाईकोर्ट में डाक्टरों की कमी से संबंधित एक पीईएल भी लगाई है,कि क्यों
युवा डौक्टर इस क्षेत्र में आने से परहेज करते हैं. साइकोलौजिक काउंसलर तो वह बन
जाएंगे पर विशेषज्ञ नहीं बनना चाहते.
कई
सारे विरोधों के बावजूद भी आज संजय शर्मा अपनी जनसेवा को जारी रखे हुए हैं,
बुंदेलखंड में गांजे को मानसिक विक्षिप्ता का सब से बड़ा कारण मानने वाले संजय नशा
मुक्ति के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं. इस के लिए वह राज्य सरकार से ले कर
केंद्र सरकार तक दरवाजा खटखटा चुके हैं. उन का मानना है कि आशिक्षा और धर्मांधता
भी इस रोग को उत्पन्न कराने में उतना ही जिम्मेदार है जितना नशा है. - दीपनारायण तिवारी
विक्षिप्तों के लिए कानून
· मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल के लिए बनाए गए पूर्व कानून जैसे-भारतीय पागलखाना
अधिनियम, 1858 (Indian Lunatic Asylum Act, 1858) और भारतीय पागलपन अधिनियम,
1912 (Indian Lunacy Act,1912) में मानवाधिकार के पहलू की उपेक्षा की गई थी
और केवल
पागलखाने में भरती मरीजों पर ही विचार किया जाता था,
सामान्य मनोरोगियों पर नहीं.
· स्वतंत्रता के पश्चात भारत में ‘मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987’ अस्तित्व में आया, जिस में कई सुधार किए गए
· विश्व स्वास्थ्य संगठन के ‘मानसिक स्वास्थ्य एटलस, 2011’ के अनुसार भारत अपने संपूर्ण स्वास्थ्य बजट का मात्र .06 % ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है. जबकि जापान और इंग्लैंड में यह प्रतिशत
क्रमशः 4.94 और 10.84
है।