Monday, May 2, 2022

दीपा मलिक : समाज की नकारात्मक सोच को करारा जवाब

 

दीपा मलिक : समाज की नकारात्मक सोच को करारा जवाब  




लाचार, बेचारी जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले समाज की इस सोच को अपनी हिम्मत और इच्छाशक्ति के बलबूते बदलने वाली देश की पहली महिला पैरालिंपिक मैडलिस्ट दीपा मलिक का जीवन चुनौतियों से भरा रहा. उन्होंने इतिहास तब रचा जब रियो में गोला फेंक स्पर्धा में रजत पदक जीत कर पैरालिंपिक में पदक हासिल करने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं. दीपा ने स्पाइन ट्यूमर से जंग जीती और फिर खेलों में मैडलों का अंबार लगा डाला. कमर से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त होते हुए भी उन्होंने अपनी उम्र से ज्यादा स्वर्ण पदक जीत कर जज्बे और जोश की मिसाल कायम की.

दीपा शौटपुटर के अलावा स्विमर, बाइकर, जैवलिन व डिस्कस थ्रोअर हैं. पैरालिंपिक खेलों में उन की उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार ने अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया था और इस वर्ष उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया.

विपरीत हालात में खुद के साथ बेटियों को संभालने और देश का नाम रोशन करने की ताकत कहां से मिली?

मुझे कुछ करने की ताकत 3 चीजों से मिली. पहली मुझे समाज की उस नकारात्मक सोच को बदलना था जिस में मेरे लिए बेचारी और लाचार जैसे शब्दों का प्रयोग लोग करने लगे थे. इस अपंगता में जब मेरा दोष नहीं था तो मैं क्यों खुद को लाचार महसूस कराऊं? मुझे समाज को दिखाना था कि हम जैसे लोग भी बहुत कुछ कर सकते हैं. हिम्मत और जज्बे के आगे शारीरिक कमी कभी बाधा नहीं बनती. दूसरी ताकत मेरी बेटियां बनीं, जिन्हें मैं संभाल रही थी. मैं नहीं चाहती थी कि बड़ी हो कर मेरी बेटियां मुझे लाचार मां के रूप में देखें. तीसरी ताकत खेलों के प्रति मेरा शौक बना, जिस ने इस स्थिति से लड़ने में मेरी बहुत सहायता की.

पेरैंट्स का कैसा सहयोग रहा?

आज उन्हीं की बदौलत में यहां हूं. मैं जब ढाई साल की थी तब पहली बार मुझे ट्यूमर हुआ था. इस का पता भी पापा ने ही लगाया. जब मैं घर में गुमसुम रहने लगी तो पापा ने मुझे चाइल्ड मनोवैज्ञानिक को दिखाया. जब मेरी बीमारी का पता चला तब पुणे आर्मी कमांड हौस्पिटल में मेरा इलाज हुआ. मैं जब तक बैड पर रही, पापा हमेशा मेरे साथ रहे. मेरे पापा बीके नागपाल आर्मी में कर्नल थे. मां भी अपने जमाने की राइफल शूटर थीं. शादी के बाद जब 1999 में दूसरी बार मेरा स्पाइनल कोर्ड के ट्यूमर का औपरेशन हुआ तब भी मुझे पापा ने ही संभाला.

आप ने परिवार को कैसे संभाला?

मेरे पति भी आर्मी में थे. पहली बेटी देविका जब डेढ़ साल की थी तो उस का एक्सीडैंट हो गया. हैड इंजरी थी जिस से उस के शरीर का एक हिस्सा पैरालाइज हो गया. यह देख कर मैं बिलकुल नहीं घबराई. मैं ने खुद उस की देखभाल की, फिजियोथेरैपी की. आज वह बिलकुल स्वस्थ है और लंदन में साइकोलौजी से पीएचडी कर रही है. दूसरी बेटी भी पैरालाइज थी. उसे भी ठीक किया. आज वह भी पूरी दुनिया घूम चुकी है. मैं तो मानती हूं कि मैं ने बेटी पढ़ा भी ली और बचा भी ली. लेकिन तीसरी सर्जरी के बाद मैं व्हीलचेयर पर आ गई, लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारी.

खेलों की शुरुआत कैसे हुई?

बचपन से ही खेलों से लगाव था, लेकिन 2006 के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. सरकार से अपने अधिकारों के लिए लड़ी. कुछ नए नियम भी बनवाए. मैं पहले महाराष्ट्र की तरफ से खेलती थी. 2006 में एक तैराक के रूप में मुझे पहला मैडल मिला. उस समय मैं पूरे भारत में अकेली दिव्यांग तैराक थी.

आप ने यमुना नदी भी पार की है?

जब बर्लिन से मैं लौटी तब घर नहीं गई और यह तय किया कि मैं यमुना को पार करूंगी और विश्व में सब को बताऊंगी कि मैं असल तैराक हूं. किसी स्विमिंग पूल की तैराक नहीं हूं. इलाहाबाद के एक कोच से कहा कि आप कैसे भी हो मुझे यमुना

पार कराओ. पहले तो उन्होंने मना किया पर फिर मेरे जज्बे को देख कर प्रैक्टिस कराने लगे. फिर 2009 में मैं ने यमुना नदी पार कर विश्व रिकौर्ड बनाया, जो लिम्का बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में दर्ज हुआ. मेरे पास ‘गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ बुक वालों को बुलाने के लिए पैसे नहीं थे वरना यह रिकौर्ड गिनीज बुक में दर्ज होता. 

 

परिवार के साथ बहुत धक्के खाए हैं : गीता टंडन

 - Deep Narayan Tiwari 

मन में अगर कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कठिन से कठिन हालात भी आगे बढ़ने की राह में रोड़ा नहीं बनते. ऐसी ही जीवन की कठिन राह पर अपने आत्मविश्वास के बलबूते सफलता की नई इबारत लिखने वाली बॉलीवुड की स्टंट वूमन गीता टंडन हैं.  बॉलीवुड में कई अभिनेत्रियों के लिए स्टंट कर चुकीं गीता की बीती जिंदगी भी उन के प्रोफैशन के जैसी ही कठिन और जोखिम भरी रही है.

महज 15 साल की उम्र में शादी हो जाने और उस के बाद पति व सास की प्रताड़ना से निकल कर 2 बच्चों को पालने तथा स्टंट जैसे जोखिम भरे प्रोफैशन के साथ सम्मान की जिंदगी जीने वाली गीता रीबोक ‘फिट टू फाइट’ अवार्ड से सम्मानित हैं. एक मुलाकात के दौरान उन से हुई बातचीत के कुछ चुनिंदा अंश पेश हैं: 

स्टंट वूमन बनने का सफर कैसा रहा?

जैसे हर एक काली रात के बाद सुबह होती है, मेरा जीवन भी कुछ उसी तरह का रहा. जब 15 साल की थी, तो पिता ने मेरी शादी यह सोच कर कर दी कि मैं शादी के बाद खुश रहूंगी, क्योंकि शादी के पहले मैं ने अपने परिवार के साथ बहुत धक्के खाए थे. लेकिन शादी के बाद भी वे सभी अरमान हवा हो गए, जो मैं ने संजोए थे. पति शराबी था. रोज पीटता था. सास भी प्रताडि़त करती थी. 2 बच्चों की मां बनने के बाद भी जब मेरी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया, तब मैं ने फैसला किया कि मैं ऐसे ही अपनी और अपने बच्चों की जिंदगी बरबाद नहीं होने दूंगी. अत: पति का घर छोड़ दिया. समाज ने बहुत कुछ कहा. पति का घर छोड़ने के बाद कई रातें सड़कों पर गुजारीं. लोगों के घरों में काम किया, क्योंकि मुझे पैसों की जरूरत थी.

बायोनिक हैंड

 बायोनिक हैंड

https://www.sarita.in/technique/new-technology

किसी दुर्घटना में अपना हाथ खो चुके लोगों के लिए बायोनिक हैंड आशा की किरण बन कर आया है. दुनिया में पहली बार आस्ट्रिया में ऐसे 3 लोगों पर इस का सफल परीक्षण किया गया जो दुर्घटनाओं में अपना हाथ खो चुके थे. विज्ञान ने ऐसे बायोनिक हैंड के प्रत्यारोपण में सफलता  हासिल कर ली है जो दिमाग के जरिए नियंत्रित हो सकता है. आस्ट्रिया के ये लोग बायोनिक हैंड लगने के बाद आसानी से (हाथ से) सामान उठा रहे हैं. लिखना, अंडा पकड़ना जैसे कई काम अब आसानी से कर पा रहे हैं. पहले भी कई मरीजों को आर्टीफिशियल हाथ लगाए गए  हैं पर उन्होंने पूरी तरह से दिमाग के अधीन हो कर काम नहीं किया. इसी दोष को विएना मैडिकल यूनिवर्सिटी के डाक्टरों ने दूर कर दिया है. वे नए नर्व सिग्नल बनाने में सफल रहे हैं. उन्होंने शरीर के अन्य अंगों से ये सिग्नल चोटग्रस्त हाथ तक लाने का काम अच्छे से कर लिया. पुरानी प्रक्रिया में इन सिग्नल को रिकवर करना संभव नहीं हो पाता था. नए सिग्नल को फिर से उपयोगी बनाने का काम भी कम मुश्किल नहीं था. इस के लिए मरीजों को खातौर पर एक हाईब्रिड हैंड के साथ प्रशिक्षित किया गया जिस के बाद नर्व सिग्नल सक्रिय होने में एक हफ्ता लगता है. इस के लिए आर्टीफिशियल हाथ लगाने वाले मरीज के उस हाथ की क्षतिग्रस्त नसों को बदला गया. कृत्रिम नसें बनाई गईं जिन्हें ब्रेकियल प्लेक्सेस कहते हैं. इन नसों से जांघ की मांसपेशियों से बनाई नसों को कनैक्ट किया गया. यह संपूर्ण प्रकिया एक विद्युत वायरिंग के ही समान है जो शौर्ट या टूटफूट होने पर काम नहीं करती. अंत में कोहनी के नीचे के बेकार हिस्से को अलग कर बायोनिक आर्म लगाई जाती है. उस के नियंत्रण के लिए आर्म में लगे सेंसर्स को तंत्रिका नसों से जोड़ा गया ताकि दिमाग से हाथ नियंत्रित हो सके. बायोनिक सर्जरी के ऐक्सपर्ट प्रो. औस्कर एजमैन बताते हैं, ‘हम ने 3 मरीजों पर ये पूरी प्रक्रिया अपनाई और मौजूदा विधियों की तुलना में इस प्रक्रिया के परिणाम बेहतर.

अब बैक्टीरिया रोकेगा प्रदूषण

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अब बैक्टीरिया रोकेगा प्रदूषण




दिसंबर 1984 में जहरीली गैस से लाखों जिंदगियां तबाह हो गईं. भोपाल की घटना को देख कर वहीं के एक छात्र ने बैक्टीरिया के माध्यम से हानिकारक गैसों को अलग करने की विधि खोज निकाली है. प्रदूषित हवा में से हानिकारक गैसों को अलग करने के लिए तमाम तरह की खोजें की गई हैं पर इस छात्र ने बैक्टीरिया ई-कोलाई के द्वारा पर्यावरण को वायु प्रदूषण से बचाने का उपाय निकाला है. यह वही बैक्टीरिया है जो आमतौर पर प्रदूषित भोजन के जरिए मनुष्य की आंत में पहुंच कर फूड पौइजनिंग का कारण बनता है. शहर के एक छात्र मयंक साहू ने ई-कोलाई बैक्टीरिया के जीन में बदलाव कर उस में ऐसी क्षमता विकसित करने में कामयाबी हासिल की है जो उद्योगों की चिमनियों और वाहनों से निकलने वाले धुएं में मौजूद हानिकारक गैसों को अवशोषित (एब्जौर्ब) कर सकेगा.

यह बैक्टीरिया इन तत्त्वों को अवशोषित कर इन्हें खाद में बदल देगा. यह खाद खेतों की मिट्टी को उर्वरक बनाने में सहायक होगी. इस मौडिफाइड बैक्टीरिया को उद्योगों की चिमनियों में एक डिवाइस के जरिए लगाया जाएगा जहां यह सल्फर डाईऔक्साइड और नाइट्रोजन डाईऔक्साइड को अवशोषित कर सके. डिवाइस में मौजूद बैक्टीरिया, सल्फर डाईऔक्साइड को सल्फर और नाइट्रोजन डाईऔक्साइड को अमोनिया में बदल देते हैं. तय समय में काम करने के बाद ये बैक्टीरिया मर जाते हैं. इन मरे हुए बैक्टीरियों को डिवाइस से बाहर निकाल कर इन से सल्फर और नाइट्रोजन को अलग कर लिया जाता है. डिवाइस से निकली सल्फर और नाइट्रोजन मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने में सहायक होती है

विज्ञान की रोचक व अनोखी दुनिया के दिलचस्प पहलू ( कार में जैट प्लेन का मजा)

Science friction





    कार में जैट प्लेन का मजा

हम अभी सिर्फ 160 किलोमीटर रफ्तार की ट्रेन को चलाने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हुए हैं जबकि दुनिया में 1,600 किलोमीटर रफ्तार की कार चलाने का मसौदा तैयार हो गया है. ब्रिटेन में एक ऐसी कार बनाने पर काम चल रहा है जिस की रफ्तार प्रति घंटा 1 हजार मील से ज्यादा होगी. ब्रिटिश ब्लडहाउंड के इस प्रोजैक्ट को विमान इंजन बनाने वाली कंपनी रौल्स रौयस प्रायोजित कर रही है. रौल्स रौयस इस के लिए वित्तीय और तकनीकी, दोनों तरह की मदद मुहैया कराएगी. इस सुपर कार में ईजे 200 जैट इंजन लगाया जाएगा जिस का इस्तेमाल अकसर लड़ाकू विमान यूरोफाइटर टाइफून में होता है. ब्लडहाउंड का कहना है कि पहले जैट इंजन का इस्तेमाल कर कार की रफ्तार को लगभग 350 मील प्रति घंटा किया जाएगा. उस के बाद उस की रौकेट मोटर को शुरू कर दिया जाएगा जिस से कार को सुपरसोनिक रफ्तार मिलेगी. इस प्रोजेक्ट का मकसद अगले साल जमीनी रफ्तार के मौजूदा रिकौर्ड 763 मील प्रति घंटा को तोड़ना है. इस के बाद 2015 में इस की स्पीड को बढ़ा कर 1 हजार मील प्रति घंटा यानी 1,610 किलोमीटर प्रति घंटा तक ले जाने की योजना है. एरोडायनेमिक शेप में डिजाइन की गई कार का डिजाइन स्वेनसिया विश्वविद्यालय की टीम ने तैयार किया है. अगर हमारे देश में यह कार आती है तो पत्नियों को मायके जाने के लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ेगा.




Friday, March 11, 2016

अपने लिए जिए तो क्या जिए





                                           

                                      अपने लिए जिए तो क्या जिए





अपने लिए तो सभी जिया करते हैं.पर कुछ लोग ऐसे हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं. इस कथन को अगर हकीकत में देखना है तो पर्यटन स्थल खजुराहो के समीप जिला मुख्यालय छतरपुर के संजय शर्मा इस की मिसाल हैं. वे दूसरों के लिए जीते हैं और उन मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों की सेवा करते हैं, जिन्हें लोग पागल कह कर दुत्कार देते हैं.



ग्राडसे ब्रेवरी अवार्ड सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित पेशे से वकील संजय शर्मा ऐसे व्यक्तियों की महज देखभाल ही नहीं करते. वे उन्हें शासकीय खर्चे पर चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराने का काम पिछले 24 वर्षों से कर रहे हैं. मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों के प्रति उन के लगाव को देख कर आसपास के सभी लोग उन्हें पागलों का वकील भी कहते हैं.
आज उन के प्रयासों के कारण 260 से ज्यादा ऐसे लोग सही हो कर सामान्य जीवन जी रहे हैं.वे बिना किसी के सहयोग से सड़क पर घूमते विक्षिप्तों व अशक्तजनों को कपड़े पहनाना,ठंड में कंबल शाल बांटना, खाना खिलाना शेव कटिंग, नहलानाधुलाना वगैरह अपने खर्चे पर करते आ रहे हैं. कानून की डिग्री हासिल करने की वजह से चूंकि वे कानून से वाकिफ हैं. इसलिए ऐसे गरीब विक्षिप्तों को वे मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 के अनुसार न्यायालय के माध्यम से मानसिक अस्पताल में भेजते हैं. संजय शर्मा का कोई एनजीओ नहीं है वे बिना किसी की सहायता लिए हुए इस काम को अंजाम दे रहे हैं.
 शौक बना जनून
 उन के इस शौक की शुरुआत कैसे हुई इस के बारे में वे बताते हैं कि मैं जब छोटा था तब हमारे महल्ले में एक पागल व्यक्ति रोज आता था, महल्ले के सभी बच्चे उसे परेशान करते व उस को पत्थर मारते थे. लेकिन मेरी नानी उसे रोज खाना देती थी. नानी से प्रेरणा लेकर मैं भी रोज मां से बिना बताए घर का बचा खाना उसे देने लगा. खाना खा कर जो संतुष्टि के भाव उस के चेहरे पर आते थे वे ऐसे लगते थे जैसे किसी जरूरतमंद को कहीं से बहुत सारा पैसा मिल गया हो. धीरेधीरे मेरे घर के सामने शहर के ऐसे लोगों की भीड़ जमा होने लगी. लेकिन इस पर महल्ले वालों से ले कर मेरे घर वालों तक को इसलिए आपत्ती होने लगी.क्योंकि उन्हें डर था कि  कहीं कोई पागल उन के बच्चों और उन्हें नुकसान न पहुंचा दे. सभी के विरोध के बावजूद भी मैं ने ऐसे व्यक्तियों के प्रति अपने शौक को बंद नहीं किया. लेकिन उन से मिलने के लिए जगह जरूर बदल ली. मैं ने देखा कि इन में और भीख मांगने वालोम में बहुत अंतर है. भीख मांगने वाले भीख मांगना एक व्यवसाय बना लेते हैं पर ये व्यक्ति सिर्फ उतना ही लेते हैं जितनी इन्हें आवश्यकता होती है, इन्हें इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई इन्हें परेशान कर रहा है. तभी से मैं ने यह संकल्प लिया कि मैं ऐसे ही अशक्तजनों की सेवा करूंगा. तब से आज तक यह लगातार जारी है.
अंधविश्वास की गहरी जड़ें
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 11 जिलों से घिरे बुंदेलखंड में अंधविश्वास और कुरूतियां चरम सीमा पर हैं. मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों को पहले तो उस के घर वाले और गांव वाले दैवीय क्रोध मान कर झाड़नेफूंकने वाले तांत्रिक ओझा के पास ले कर जाते हैं. और उस व्यक्ति को घर पर ही जानवरों की तरह कैद करके रखते हैं.  उस व्यक्ति से जुड़े अंधविश्वास में कंठ तक डूबे घर वाले इन लोगों के चंगुल में फंस कर झाड़फूंक कराते रहते हैं, क्योंकि पंडेपुजारी तो हमेशा से यही चाहते हैं कि उन की धर्म की दुकान न बंद हो. उचित चिकित्सीय इलाज न मिलने के कारण उस की हालत बद से बदतर होती जाती है. लोगों में इस बीमारी के तेजी से फैलने के कारण पर संजय बताते हैं कि मैंने जितने भी विक्षिप्त व्यक्तियों से संपर्क किया सभी ने बताया कि शुरू में वे गांजा पीने के आदी थे. गांजा तंत्रिका तंत्र पर हमला करता है और उस का शिकार व्यक्ति धीरेधीरे उस की गिरप्त में आता जाता है. आगे चल कर नशा व्यक्ति पर इस कदर हावी हो जाता है कि वह विक्षिप्तों जैसा व्योहार करने लगता है और यही आगे चलकर उचित सलाह और इलाज न मिलने की दशा में पूर्ण रूप से विक्षिप्त हो जाता हैं.
वे बताते हैं कि ऐसे लोगों का इलाज कराना भी सरल नहीं है,क्यों कि एक तो हमारे देश में मनोचिकित्सकों की भारी कमी है, और दवाएं अत्यंत महंगी हैं.और सब से बड़ी समस्या कानून है जिस को सही तरीके से पूरा किए बिना परिवार वाले भी मानसिक रूप से विक्षिप्त को अस्पताल में ऐडमिट नहीं कर सकते. भारत सरकार के मैंटल ऐक्ट 1984 के अनुसार ही ऐसे व्यक्ति का अस्पताल में दाखिला होता है. इस ऐक्ट के लागू होने के पहले किसी भी सामान्य व्यक्ति को पागल घोषित करके प्रौपर्टी हथियाने के मामले सामान्य थे. उसी को रोकने के लिए सरकार यह ऐक्ट लाया था. जिस में उस इलाके का थाना प्रभारी पंचनामा बना कर और आसपास वालों के स्टेटमेंट के आधार पर यह लिखता है कि उक्त विक्षिप्त व्यक्ति हिंसक है और समाज के लिए खतरनाक है.उस स्टेटमैंट को उस जिले के मैडीकल बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया जाता है. बोर्ड की स्वीकृति के बाद सीजीएम द्वारा विक्षिप्त व्यक्ति को मानसिक अस्पताल में दाखिले के लिए आदेश जारी किया जाता है. अब आप ही बताइए कौन इस लंबी कानूनी प्रक्रिया को अपनाता होगा. कई मरीजों के घर वाले तो इस लंबी कानूनी प्रक्रिया से डर उन का इलाज नहीं कराते हैं और घर पर ही कैद कर देते हैं. मुझे जब किसी मरीज के बारे में पता चलता है तो में यही कानूनी प्रक्रिया उन के लिए स्वयं करता हूं. चूंकि में खुद कानून का जानकार हूं तो बड़े ही सहज तरीके से न्यायपालिका के सहयोग से उस मरीज की सहायता कर पाता हूं. कई बार तो ऐसे मरीज जिनका कोई पता ठिकाना नहीं कोई घरपरिवार नहीं उन का इलाज मैं ने शासकीय खर्चे पर कराया है. क्योंकि कानून में प्रावधान है कि अगर कोई निराश्रित है या गरीब है तो उस का इलाज सरकार कराएगी.
कठिनाइयां
सेवा कार्य करते समय उन्हें कई बार परेशानियों का सामना भी करना पड़ा है.कुछ विक्षिप्त तो पहली बार उन से मिलने पर वैसा ही व्यवहार करते हैं.जैसा वे आम लोगों के साथ करते हैं. मारने के लिए दौड़ना, गालियां देना, दिए गए सामान को फेंक देना. इस के बावजूद भी मैं बिलकुल सहज भाव से इन से मिलता हूं. जैसे किसी सामान्य अदमी से मिलता हूं. उन की पसंद की चीजों के बारे में पता करता हूं. उस का लालच देता हूं.तब वे पास आने को तैयार होते हैं कई मरीज जिन्हें कईकई दिनों से जंजीरों में बांध कर रखा गया होता है वे हिंसक हो जाते हैं और पास में आनेजाने वालों को मारते हैं. उन के पास जाने में मुझे भी कुछ डर लगा रहता है पर धीरेधीरे बात करने पर उन से दोस्ताना व्यवहार हो जाता है. उन को नहलाना, खाना खिलाना,गंदगी साफ करने तक का काम मैं करता हूं. तब जाकर उन का विश्वास हासिल कर पाता हूं. एक बार तो संजय शर्मा को ऐसे लोगों की सहायता के चक्कर में जेल तक हो गई थी. वे बताते हैं, एक ग्रैजुऐट लड़का जो 4 साल से मानसिक विक्षिप्त था, ने 4-5 लोगों पर धारदार हथियारों से हमला कर दिया. उस के विरुद्ध 4 कानूनी मामले भी दर्ज हो गए पर विक्षिप्तता की अवस्था उसे जेल नहीं हो पाई. और वह मोटी जंजीरों से घर पर ही दिनरात बंधा रहता था. मैं ने उस के परिवार वालों की गुहार पर पुलिस अधीक्षक से मिलकर कानूनी कार्यवाही करके जिला अस्पताल में उस का मैडीकल कराकर संबंधित न्यायालय उसे पेश किया. जहां न्यायालय ने उस से कुछ प्रश्न किए इस के बाद न्यायालय के दरवाजे बंद करके न्यायायधीश ने कुछ प्रश्न किए. विक्षिप्त ग्रैजुऐट व टीचर था. इसलिए सभी प्रश्नों के सही उत्तर देता रहा. न्यायालय ने मैडीकल रिपोर्ट,पंचनामा को आधार न मानकर उस व्यक्ति को मानसिक रूप से सही मानते हुए मुझे और उस व्यक्ति के पिता को धारा 342 के तहत गिरफ्तार करने का आदेश दिया. 10 दिन की कैद के पश्चात न्यायालय ने दोबारा सारी विवेचना कराई जो सही पाई गई और उसे मानसिक विक्षिप्त पाया गया और कोर्ट के अदेश पर उस का इलाज कराया गया.
 इसलिए बढ रही है संख्या
     बस स्टैंड के पास और सड़क किनारे होटलों ढाबों में रातदिन काम करते कई मानसिक विक्षिप्तों को आप ने देखा होगा. कई लोग ऐसे लोगों का गलत फायदा भी उठाते हैं. क्यों कि सिर्फ खाना खिलाने के नाम पर रातदिन इन से काम लिया जाता है. ऐसे लोगों की संख्या हमारे देश में हजारों है जिनकी सुध लेने वाला हमारे यहां कोई नहीं है. अगर कोई मदद के लिए हाथ बढ़ाता भी है तो हमारी कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामान्य आदमी इन्हें अस्पताल में ऐडमिट नहीं करा सकता. पुलिस भी पूर्ण रूप से सहयोग नहीं करती क्योंकि उसे भी ऐक्ट की जानकारी नहीं है और इन लोगों को वह बेबजह के झमेले में पड़ना मानती है. अगर किसी विक्षिप्त का परिवार उसका इलाज कराने में सक्षम है तो डौक्टरों की भारी कमी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूर्वानुमान लगाया है कि भारत में वर्ष 2020 तक भारत की लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या (लगभग 30 करोड़ लोग) किसी न किसी प्रकार की मानसिक अस्वस्थता से पीड़ित होगी. वर्तमान में भारत में  मात्र 3500 मनोचिकित्सक हैं, अतः सरकार को अगले दशक में इस अंतराल को काफी हद तक कम करने की समस्या से जूझना होगा. 
मैंने जबलपुर हाईकोर्ट में डाक्टरों की कमी से संबंधित एक पीईएल भी लगाई है,कि क्यों युवा डौक्टर इस क्षेत्र में आने से परहेज करते हैं. साइकोलौजिक काउंसलर तो वह बन जाएंगे पर विशेषज्ञ नहीं बनना चाहते.
कई सारे विरोधों के बावजूद भी आज संजय शर्मा अपनी जनसेवा को जारी रखे हुए हैं, बुंदेलखंड में गांजे को मानसिक विक्षिप्ता का सब से बड़ा कारण मानने वाले संजय नशा मुक्ति के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं. इस के लिए वह राज्य सरकार से ले कर केंद्र सरकार तक दरवाजा खटखटा चुके हैं. उन का मानना है कि आशिक्षा और धर्मांधता भी इस रोग को उत्पन्न कराने में उतना ही जिम्मेदार है जितना नशा है.          -    दीपनारायण तिवारी 

                                          विक्षिप्तों के लिए कानून
·  मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल के लिए बनाए गए पूर्व कानून जैसे-भारतीय पागलखाना अधिनियम, 1858 (Indian Lunatic Asylum Act, 1858) और भारतीय पागलपन अधिनियम, 1912 (Indian Lunacy Act,1912) में मानवाधिकार के पहलू की उपेक्षा की गई थी
और केवल पागलखाने में भरती मरीजों पर ही विचार किया जाता था, सामान्य मनोरोगियों पर नहीं.
·  स्वतंत्रता के पश्चात भारत में मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987’  अस्तित्व में आया,  जिस में कई सुधार किए गए
·  विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानसिक स्वास्थ्य एटलस, 2011’ के अनुसार भारत अपने संपूर्ण स्वास्थ्य बजट का मात्र .06 % ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है. जबकि जापान और इंग्लैंड में यह प्रतिशत क्रमशः 4.94 और 10.84 है।