Monday, May 2, 2022

दीपा मलिक : समाज की नकारात्मक सोच को करारा जवाब

 

दीपा मलिक : समाज की नकारात्मक सोच को करारा जवाब  




लाचार, बेचारी जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले समाज की इस सोच को अपनी हिम्मत और इच्छाशक्ति के बलबूते बदलने वाली देश की पहली महिला पैरालिंपिक मैडलिस्ट दीपा मलिक का जीवन चुनौतियों से भरा रहा. उन्होंने इतिहास तब रचा जब रियो में गोला फेंक स्पर्धा में रजत पदक जीत कर पैरालिंपिक में पदक हासिल करने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं. दीपा ने स्पाइन ट्यूमर से जंग जीती और फिर खेलों में मैडलों का अंबार लगा डाला. कमर से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त होते हुए भी उन्होंने अपनी उम्र से ज्यादा स्वर्ण पदक जीत कर जज्बे और जोश की मिसाल कायम की.

दीपा शौटपुटर के अलावा स्विमर, बाइकर, जैवलिन व डिस्कस थ्रोअर हैं. पैरालिंपिक खेलों में उन की उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार ने अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया था और इस वर्ष उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया.

विपरीत हालात में खुद के साथ बेटियों को संभालने और देश का नाम रोशन करने की ताकत कहां से मिली?

मुझे कुछ करने की ताकत 3 चीजों से मिली. पहली मुझे समाज की उस नकारात्मक सोच को बदलना था जिस में मेरे लिए बेचारी और लाचार जैसे शब्दों का प्रयोग लोग करने लगे थे. इस अपंगता में जब मेरा दोष नहीं था तो मैं क्यों खुद को लाचार महसूस कराऊं? मुझे समाज को दिखाना था कि हम जैसे लोग भी बहुत कुछ कर सकते हैं. हिम्मत और जज्बे के आगे शारीरिक कमी कभी बाधा नहीं बनती. दूसरी ताकत मेरी बेटियां बनीं, जिन्हें मैं संभाल रही थी. मैं नहीं चाहती थी कि बड़ी हो कर मेरी बेटियां मुझे लाचार मां के रूप में देखें. तीसरी ताकत खेलों के प्रति मेरा शौक बना, जिस ने इस स्थिति से लड़ने में मेरी बहुत सहायता की.

पेरैंट्स का कैसा सहयोग रहा?

आज उन्हीं की बदौलत में यहां हूं. मैं जब ढाई साल की थी तब पहली बार मुझे ट्यूमर हुआ था. इस का पता भी पापा ने ही लगाया. जब मैं घर में गुमसुम रहने लगी तो पापा ने मुझे चाइल्ड मनोवैज्ञानिक को दिखाया. जब मेरी बीमारी का पता चला तब पुणे आर्मी कमांड हौस्पिटल में मेरा इलाज हुआ. मैं जब तक बैड पर रही, पापा हमेशा मेरे साथ रहे. मेरे पापा बीके नागपाल आर्मी में कर्नल थे. मां भी अपने जमाने की राइफल शूटर थीं. शादी के बाद जब 1999 में दूसरी बार मेरा स्पाइनल कोर्ड के ट्यूमर का औपरेशन हुआ तब भी मुझे पापा ने ही संभाला.

आप ने परिवार को कैसे संभाला?

मेरे पति भी आर्मी में थे. पहली बेटी देविका जब डेढ़ साल की थी तो उस का एक्सीडैंट हो गया. हैड इंजरी थी जिस से उस के शरीर का एक हिस्सा पैरालाइज हो गया. यह देख कर मैं बिलकुल नहीं घबराई. मैं ने खुद उस की देखभाल की, फिजियोथेरैपी की. आज वह बिलकुल स्वस्थ है और लंदन में साइकोलौजी से पीएचडी कर रही है. दूसरी बेटी भी पैरालाइज थी. उसे भी ठीक किया. आज वह भी पूरी दुनिया घूम चुकी है. मैं तो मानती हूं कि मैं ने बेटी पढ़ा भी ली और बचा भी ली. लेकिन तीसरी सर्जरी के बाद मैं व्हीलचेयर पर आ गई, लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारी.

खेलों की शुरुआत कैसे हुई?

बचपन से ही खेलों से लगाव था, लेकिन 2006 के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. सरकार से अपने अधिकारों के लिए लड़ी. कुछ नए नियम भी बनवाए. मैं पहले महाराष्ट्र की तरफ से खेलती थी. 2006 में एक तैराक के रूप में मुझे पहला मैडल मिला. उस समय मैं पूरे भारत में अकेली दिव्यांग तैराक थी.

आप ने यमुना नदी भी पार की है?

जब बर्लिन से मैं लौटी तब घर नहीं गई और यह तय किया कि मैं यमुना को पार करूंगी और विश्व में सब को बताऊंगी कि मैं असल तैराक हूं. किसी स्विमिंग पूल की तैराक नहीं हूं. इलाहाबाद के एक कोच से कहा कि आप कैसे भी हो मुझे यमुना

पार कराओ. पहले तो उन्होंने मना किया पर फिर मेरे जज्बे को देख कर प्रैक्टिस कराने लगे. फिर 2009 में मैं ने यमुना नदी पार कर विश्व रिकौर्ड बनाया, जो लिम्का बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में दर्ज हुआ. मेरे पास ‘गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ बुक वालों को बुलाने के लिए पैसे नहीं थे वरना यह रिकौर्ड गिनीज बुक में दर्ज होता. 

 

परिवार के साथ बहुत धक्के खाए हैं : गीता टंडन

 - Deep Narayan Tiwari 

मन में अगर कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कठिन से कठिन हालात भी आगे बढ़ने की राह में रोड़ा नहीं बनते. ऐसी ही जीवन की कठिन राह पर अपने आत्मविश्वास के बलबूते सफलता की नई इबारत लिखने वाली बॉलीवुड की स्टंट वूमन गीता टंडन हैं.  बॉलीवुड में कई अभिनेत्रियों के लिए स्टंट कर चुकीं गीता की बीती जिंदगी भी उन के प्रोफैशन के जैसी ही कठिन और जोखिम भरी रही है.

महज 15 साल की उम्र में शादी हो जाने और उस के बाद पति व सास की प्रताड़ना से निकल कर 2 बच्चों को पालने तथा स्टंट जैसे जोखिम भरे प्रोफैशन के साथ सम्मान की जिंदगी जीने वाली गीता रीबोक ‘फिट टू फाइट’ अवार्ड से सम्मानित हैं. एक मुलाकात के दौरान उन से हुई बातचीत के कुछ चुनिंदा अंश पेश हैं: 

स्टंट वूमन बनने का सफर कैसा रहा?

जैसे हर एक काली रात के बाद सुबह होती है, मेरा जीवन भी कुछ उसी तरह का रहा. जब 15 साल की थी, तो पिता ने मेरी शादी यह सोच कर कर दी कि मैं शादी के बाद खुश रहूंगी, क्योंकि शादी के पहले मैं ने अपने परिवार के साथ बहुत धक्के खाए थे. लेकिन शादी के बाद भी वे सभी अरमान हवा हो गए, जो मैं ने संजोए थे. पति शराबी था. रोज पीटता था. सास भी प्रताडि़त करती थी. 2 बच्चों की मां बनने के बाद भी जब मेरी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया, तब मैं ने फैसला किया कि मैं ऐसे ही अपनी और अपने बच्चों की जिंदगी बरबाद नहीं होने दूंगी. अत: पति का घर छोड़ दिया. समाज ने बहुत कुछ कहा. पति का घर छोड़ने के बाद कई रातें सड़कों पर गुजारीं. लोगों के घरों में काम किया, क्योंकि मुझे पैसों की जरूरत थी.

बायोनिक हैंड

 बायोनिक हैंड

https://www.sarita.in/technique/new-technology

किसी दुर्घटना में अपना हाथ खो चुके लोगों के लिए बायोनिक हैंड आशा की किरण बन कर आया है. दुनिया में पहली बार आस्ट्रिया में ऐसे 3 लोगों पर इस का सफल परीक्षण किया गया जो दुर्घटनाओं में अपना हाथ खो चुके थे. विज्ञान ने ऐसे बायोनिक हैंड के प्रत्यारोपण में सफलता  हासिल कर ली है जो दिमाग के जरिए नियंत्रित हो सकता है. आस्ट्रिया के ये लोग बायोनिक हैंड लगने के बाद आसानी से (हाथ से) सामान उठा रहे हैं. लिखना, अंडा पकड़ना जैसे कई काम अब आसानी से कर पा रहे हैं. पहले भी कई मरीजों को आर्टीफिशियल हाथ लगाए गए  हैं पर उन्होंने पूरी तरह से दिमाग के अधीन हो कर काम नहीं किया. इसी दोष को विएना मैडिकल यूनिवर्सिटी के डाक्टरों ने दूर कर दिया है. वे नए नर्व सिग्नल बनाने में सफल रहे हैं. उन्होंने शरीर के अन्य अंगों से ये सिग्नल चोटग्रस्त हाथ तक लाने का काम अच्छे से कर लिया. पुरानी प्रक्रिया में इन सिग्नल को रिकवर करना संभव नहीं हो पाता था. नए सिग्नल को फिर से उपयोगी बनाने का काम भी कम मुश्किल नहीं था. इस के लिए मरीजों को खातौर पर एक हाईब्रिड हैंड के साथ प्रशिक्षित किया गया जिस के बाद नर्व सिग्नल सक्रिय होने में एक हफ्ता लगता है. इस के लिए आर्टीफिशियल हाथ लगाने वाले मरीज के उस हाथ की क्षतिग्रस्त नसों को बदला गया. कृत्रिम नसें बनाई गईं जिन्हें ब्रेकियल प्लेक्सेस कहते हैं. इन नसों से जांघ की मांसपेशियों से बनाई नसों को कनैक्ट किया गया. यह संपूर्ण प्रकिया एक विद्युत वायरिंग के ही समान है जो शौर्ट या टूटफूट होने पर काम नहीं करती. अंत में कोहनी के नीचे के बेकार हिस्से को अलग कर बायोनिक आर्म लगाई जाती है. उस के नियंत्रण के लिए आर्म में लगे सेंसर्स को तंत्रिका नसों से जोड़ा गया ताकि दिमाग से हाथ नियंत्रित हो सके. बायोनिक सर्जरी के ऐक्सपर्ट प्रो. औस्कर एजमैन बताते हैं, ‘हम ने 3 मरीजों पर ये पूरी प्रक्रिया अपनाई और मौजूदा विधियों की तुलना में इस प्रक्रिया के परिणाम बेहतर.

अब बैक्टीरिया रोकेगा प्रदूषण

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अब बैक्टीरिया रोकेगा प्रदूषण




दिसंबर 1984 में जहरीली गैस से लाखों जिंदगियां तबाह हो गईं. भोपाल की घटना को देख कर वहीं के एक छात्र ने बैक्टीरिया के माध्यम से हानिकारक गैसों को अलग करने की विधि खोज निकाली है. प्रदूषित हवा में से हानिकारक गैसों को अलग करने के लिए तमाम तरह की खोजें की गई हैं पर इस छात्र ने बैक्टीरिया ई-कोलाई के द्वारा पर्यावरण को वायु प्रदूषण से बचाने का उपाय निकाला है. यह वही बैक्टीरिया है जो आमतौर पर प्रदूषित भोजन के जरिए मनुष्य की आंत में पहुंच कर फूड पौइजनिंग का कारण बनता है. शहर के एक छात्र मयंक साहू ने ई-कोलाई बैक्टीरिया के जीन में बदलाव कर उस में ऐसी क्षमता विकसित करने में कामयाबी हासिल की है जो उद्योगों की चिमनियों और वाहनों से निकलने वाले धुएं में मौजूद हानिकारक गैसों को अवशोषित (एब्जौर्ब) कर सकेगा.

यह बैक्टीरिया इन तत्त्वों को अवशोषित कर इन्हें खाद में बदल देगा. यह खाद खेतों की मिट्टी को उर्वरक बनाने में सहायक होगी. इस मौडिफाइड बैक्टीरिया को उद्योगों की चिमनियों में एक डिवाइस के जरिए लगाया जाएगा जहां यह सल्फर डाईऔक्साइड और नाइट्रोजन डाईऔक्साइड को अवशोषित कर सके. डिवाइस में मौजूद बैक्टीरिया, सल्फर डाईऔक्साइड को सल्फर और नाइट्रोजन डाईऔक्साइड को अमोनिया में बदल देते हैं. तय समय में काम करने के बाद ये बैक्टीरिया मर जाते हैं. इन मरे हुए बैक्टीरियों को डिवाइस से बाहर निकाल कर इन से सल्फर और नाइट्रोजन को अलग कर लिया जाता है. डिवाइस से निकली सल्फर और नाइट्रोजन मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने में सहायक होती है

विज्ञान की रोचक व अनोखी दुनिया के दिलचस्प पहलू ( कार में जैट प्लेन का मजा)

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    कार में जैट प्लेन का मजा

हम अभी सिर्फ 160 किलोमीटर रफ्तार की ट्रेन को चलाने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हुए हैं जबकि दुनिया में 1,600 किलोमीटर रफ्तार की कार चलाने का मसौदा तैयार हो गया है. ब्रिटेन में एक ऐसी कार बनाने पर काम चल रहा है जिस की रफ्तार प्रति घंटा 1 हजार मील से ज्यादा होगी. ब्रिटिश ब्लडहाउंड के इस प्रोजैक्ट को विमान इंजन बनाने वाली कंपनी रौल्स रौयस प्रायोजित कर रही है. रौल्स रौयस इस के लिए वित्तीय और तकनीकी, दोनों तरह की मदद मुहैया कराएगी. इस सुपर कार में ईजे 200 जैट इंजन लगाया जाएगा जिस का इस्तेमाल अकसर लड़ाकू विमान यूरोफाइटर टाइफून में होता है. ब्लडहाउंड का कहना है कि पहले जैट इंजन का इस्तेमाल कर कार की रफ्तार को लगभग 350 मील प्रति घंटा किया जाएगा. उस के बाद उस की रौकेट मोटर को शुरू कर दिया जाएगा जिस से कार को सुपरसोनिक रफ्तार मिलेगी. इस प्रोजेक्ट का मकसद अगले साल जमीनी रफ्तार के मौजूदा रिकौर्ड 763 मील प्रति घंटा को तोड़ना है. इस के बाद 2015 में इस की स्पीड को बढ़ा कर 1 हजार मील प्रति घंटा यानी 1,610 किलोमीटर प्रति घंटा तक ले जाने की योजना है. एरोडायनेमिक शेप में डिजाइन की गई कार का डिजाइन स्वेनसिया विश्वविद्यालय की टीम ने तैयार किया है. अगर हमारे देश में यह कार आती है तो पत्नियों को मायके जाने के लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ेगा.